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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

।। चौथा भाग ।।

 

पहिला बयान


दारोगा के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा रहा, इसके बाद उन तीनों में इस तरह की बातचीत होने लगी:–

जमना : देखो बहिन, जमाने ने कैसा पलटा खाया है!

सरस्वती: बहिन, किस्मत ने तो बहुत दिनों से पलटा खाया हुआ है, यह कहो कि उतना दुःख देकर भी विधाता को चैन न पड़ा और अब वह अपनी निर्दय आँखों के सामने एकदम से ही हम लोगों का निपटारा किया चाहता है. दुनिया में लोग किस तरह कहा करते हैं कि धर्म की सदा जय रहती है?

जमना : हाय, अब मैं क्या करूं? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता. (इन्दुमति से) बहिन, तुम चुप क्यों हो? तुम ही कुछ बताओ कि अब क्या किया जाय? इस कैदखाने से छुटकारा मिलना तो बड़ा कठिन जान पड़ता है.

इन्दु० : बहिन, मैं क्या कहूँ? मेरी किस्मत तो बिल्कुल ही फूटी हुई है, मैं इस योग्य कहाँ हूँ कि कुछ राय दूँ!

जमना : नहीं बहिन, तुम्हारी किस्मत फूटी हुई नहीं थी बल्कि मेरे साथ आ रहने ही से तुम्हारी भी किस्मत फूट गई, बदकिस्मतों के साथ रहने वाला भी कुछ दिन में बदकिस्मत हो जाता है, मेरी ही संगत ने तुम्हें भी बर्बाद कर दिया. आह, हम दोनों बहिनें वास्तव में...

सरस्वती: अब इन सब बातों के सोचने-विचारने का यह समय नहीं है, इस समय अपना कर्तव्य सोचना और बहुत जल्द निश्चय करना चाहिये कि जब थोड़ी देर में दारोगा आवेगा तो उसे क्या जवाब दिया जाएगा. हाय, हम लोगों की नादानी और जल्दबाजी ही के सबब से यह बुरा दिन देखना नसीब हुआ, नहीं तो बड़े मजे से उस घाटी के अन्दर हम लोग पड़े हुए थे. अगर थोड़े दिन और प्रकट न होते तो अच्छा था, शीघ्रता से उछल पड़े, यही बुरा हुआ.

जमना : (ऊँची साँस लेकर) खैर जो हुआ सो हुआ.

सरस्वती: मेरी राय में तो अब दारोगा की बात मान ही लेनी चाहिए.

जमना : वह जरूर कहेगा कि तुम एक चिट्ठी लिख दो कि भूतनाथ बेकसूर है इत्यादि इत्यादि.

सरस्वती: बेशक ऐसा लिखने के लिए कहेगा, परन्तु यह बताओ कि इस कैद में पड़े सड़ने से ही लाभ क्या है? हाँ कुछ उम्मीद हो तो कहो.

जमना : उम्मीद तो कुछ भी नहीं है.

सरस्वती: बस फिर, जो कुछ दारोगा कहे सो लिख दो और भूतनाथ से सुलह करके बखेड़ा तै करो, अपने साथ क्यों बेचारी इन्दुमति और प्रभाकरसिंहजी को जहन्नुम में मिला रही हो?

जमना : और अगर उसकी इच्छानुसार लिख देने पर भी वह बदल जाय अर्थात् अपना काम पूरा करके हम लोगों को मार डाले तब?

सर: तब क्या? जो होगा सो होगा, उसकी बात न मानने से तो निश्चित है कि वह हम लोगों को कभी जीता न छोड़ेगा, और लिख देने पर आशा होती है कि शायद वह अपने कौल का सच्चा निकले और हम लोगों पर रहम करे!

जमना : हाँ, सो हो सकता है. (कुछ गहरी चिन्ता करके) अच्छा निश्चय हो गया कि ऐसा ही किया जायगा अर्थात् जो कुछ दारोगा कहेगा उसे मंजूर कर लेंगे.

सर: (ऊपर की तरफ हाथ उठा कर) हे ईश्वर क्या हम लोगों के पाप का प्रायश्चित नहीं है?क्या हम लोग इस योग्य नहीं हैं कि तू हम लोगों पर दया करे? तू तो बड़ा दयालु कहलाता है. क्या इस समय हमारे लिए यहाँ कोई मददगार नहीं भेज सकता!

कुछ देर तक जमना और सरस्वती में इसी तरह की और भी बातें होती रहीं, इसके बाद समय पूरा हो जाने पर कैदखाने का दरवाजा खुला और तिलिस्मी दारोगा किवाड़ बन्द करता हुआ आकर उन तीनों के सामने खड़ा हो गया.

दारोगा: कहो क्या निश्चय किया?

जमना : हम लोगों को क्या निश्चय करना है, जो कुछ कहोगे करने के लिए तैयार हैं.

दारोगा: शाबाश, यही बुद्धिमानी है, अच्छा तो तुम अपने हाथ से एक चीठी भूतनाथ के नाम की लिख दो जिसमें यह मजमून होना चाहिए—‘‘मेरे प्यारे गदाधरसिंह,

बड़े अफसोस की बात है कि तुम अभी तक हमारे पति के घातक का पता लगा कर वादा पूरा न कर सके. मुझे पता लग चुका है कि दलीपशाह मेरे पति का घातक है, इसके लिए मुझे कई सबूत मिल चुके हैं. अब तुम शीघ्र मेरे पास आओ तो मैं वह सबूत तुम्हें दिखाऊँ. आशा है कि उसके सहारे तुम जल्द असली बात का पता लगा लोगे.’’

बस इसी मजमून का पत्र लिख दो और तुम दोनों बहिन उस पर अपना हस्ताक्षर भी कर दो, कलम-दवात और कागज मैं अपने साथ लेता आया हूँ.

जमना : (कुछ बिगड़ कर) वाह वाह, क्या खूब! तुम तो ऐसी बात लिखाना चाहते हो जिससे कि मैं जीती रह कर भी किसी के आगे मुँह न दिखा सकूँ. इससे तो साफ जाहिर होता है कि ये बातें लिखाने के बाद तुम हम लोगों को मार डालोगे. बेशक ऐसी ही बात है. दलीपशाह बेचारे ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो मैं उसे इस तरह हलाल करूँ?

दारोगा: ऐसा लिखने में तुम्हारा कोई भी नुकसान नहीं है, और बिना इस तरह पर लिखे तुम्हें छुटकारा भी नहीं मिल सकता.

जमना : चाहे जो हो, मगर मैं दलीपशाह के बारे में कदापि ऐसा न लिखूँगी, वह बेचारा बिल्कुल निर्दोष है.

दारोगा: देखो नादानी मत करो और मुफ्त में अपने साथ इन्दुमति और प्रभाकरसिंह की भी जान मत लो.

जमना : अब जो कुछ किस्मत में लिखा है सो होगा मगर मैं ऐसा अन्धेर नहीं कर सकती.

दारोगा: खैर जब तुम्हें यही धुन समाई हुई है तो देखो तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया जाता है! अच्छा मैं जाता हूँ, थोड़ी देर में बन्दोबस्त करके पुनः आऊँगा.

इतना कह कर दारोगा वहाँ से चला गया और आधे घण्टे के बाद पुनः लौट आया, अबकी दफे और भी दो आदमी उसके साथ थे जिनके चेहरों पर स्याह नकाब और हाथ में नंगी तलवारें थीं.

दारोगा ने पुनः उसी सुरंग का दरवाजा खोला जिसमें जमना, सरस्वती और इन्दुमति को प्रभाकरसिंह के कैद की अवस्था दिखाने के लिए ले गया था, इसके बाद दोनों नकाबपोशों से कुछ कहा जिसके सुनते ही वे जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास चले गये और उन तीनों को खम्भे से खोल उसी सुरंग में ले गये. वह खिड़की खोल दी गई थी जिसमें से पहिले दफे उन तीनों ने झांक कर प्रभाकरसिंह को देखा था. दारोगा की आज्ञानुसार दोनों नकाबपोशों ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को उस खिड़की के पास खड़ा कर दिया और स्वयं नंगी तलवार लिए उनके पीछे खड़े हो गये. उस समय दारोगा ने पुनः उन तीनों से कहा, ‘‘एक दफे फिर नीचे की तरफ झाँक कर अपने प्रभाकरसिंह की दुर्दशा देखो. मैं उनके पास जाता हूँ और तुम्हारे देखते-ही-देखते उनका काम तमाम करता हूँ।’’

इतना कह दारोगा वहाँ से चला गया और ये तीनों बड़ी ही बेचैनी के साथ नीचे की तरफ देखने और रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगीं.

हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर और पेड़ के साथ बंधे हुए प्रभाकरसिंह सिर झुकाए जमीन की तरफ देख रहे थे जिस समय हाथ में नंगी तलवार लिए दारोगा उनके पास पहुँचा.

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